श्री शत्रुंजय महातीर्थ

सिरसा वंदे गिरिवरम्

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शाश्वत तीर्थ शत्रुंजय गिरिराज

अनादिकाल से अनंतकाल तक न मिटने वाला शाश्वत तीर्थ जहा का एक एक पत्थर अपनी एक विशेषता लिए बेठा है जिसके नाम स्मरण मात्र से भव भवान्तर के पाप मुक्त हो जाते इसे शत्रुंजय गिरिराज (मोक्ष नगरी) पलिताना की महिमा के बारे में जानना अत्यंत ही आनंद का कार्य है। अतिमुक्त केवली ने नारद ऋषि से शत्रुंजय की महिमा का निम्नानुसार वर्णन किया था।

श्री शत्रुंजय महातीर्थ जैसा एक भी तीर्थ नही है, जिसके शिखर पर ८६३ से अधिक शिखरबंधी जिनालय है, जहाँ १७००० से अधिक प्रभु प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित है।

इस महातीर्थ के १६ उद्धार हुए है, इस महातीर्थ पर प्रथम जिनालय उसी अवसर्पिणी काल में उन्ही के सांसारिक पुत्र राजा भरत चक्रवर्ती ने बनवाकर प्रभु आदिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी।

शत्रुंजय महाकल्प में लिखा है, यदि मानव सभी तीर्थों की यात्रा करके आए और सिद्धगिरीराज की एक यात्रा करें तो भी उसे सौ गुणा फल मिलता है, इस भूमि का कण-कण, अणु-अणु पावन एवं पवित्र है, यहाँ अनंतानंत सिद्ध मोक्ष सिधारे है, उनके चरण स्पर्श से पावन हुआ है...यहाँ की भूमि का हर कण।

शाश्वत तीर्थ शत्रुंजय गिरिराज

अनादिकाल से अनंतकाल तक न मिटने वाला शाश्वत तीर्थ जहा का एक एक पत्थर अपनी एक विशेषता लिए बेठा है जिसके नाम स्मरण मात्र से भव भवान्तर के पाप मुक्त हो जाते इसे शत्रुंजय गिरिराज (मोक्ष नगरी) पलिताना की महिमा के बारे में जानना अत्यंत ही आनंद का कार्य है। अतिमुक्त केवली ने नारद ऋषि से शत्रुंजय की महिमा का निम्नानुसार वर्णन किया था।

श्री शत्रुंजय महातीर्थ जैसा एक भी तीर्थ नही है, जिसके शिखर पर ८६३ से अधिक शिखरबंधी जिनालय है, जहाँ १७००० से अधिक प्रभु प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित है।

इस महातीर्थ के १६ उद्धार हुए है, इस महातीर्थ पर प्रथम जिनालय उसी अवसर्पिणी काल में उन्ही के सांसारिक पुत्र राजा भरत चक्रवर्ती ने बनवाकर प्रभु आदिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी।

शत्रुंजय महाकल्प में लिखा है, यदि मानव सभी तीर्थों की यात्रा करके आए और सिद्धगिरीराज की एक यात्रा करें तो भी उसे सौ गुणा फल मिलता है, इस भूमि का कण-कण, अणु-अणु पावन एवं पवित्र है, यहाँ अनंतानंत सिद्ध मोक्ष सिधारे है, उनके चरण स्पर्श से पावन हुआ है...यहाँ की भूमि का हर कण।

शांति और आत्म-नियंत्रण अहिंसा है

“प्रत्येक जीव स्वतंत्र है. कोई किसी और पर निर्भर नहीं करता.”

“प्रत्येक आत्मा स्वयं में सर्वज्ञ और आनंदमय है. आनंद बाहर से नहीं आता.”